Kundli Mein Dhan Ka Yog | Astrology by Chetan Engineer | कुंडली में धन का योग

 



               ‘‘श्री‘‘ का प्रतिनिधित्व करता-‘‘धनेश‘

जब भी लक्ष्मी जी के संबंध में बात हो तो अनायास ही मानव का ध्यान धन की ओर हो जाता हैं। क्यों न हो? आखिर ‘लक्ष्मी जी‘ हैं ही ‘धन की देवी‘। और धन से ही मानव की इच्छाएं पूर्ण होती हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में धन अर्थात अर्थ का विशिष्ट महत्व है क्योंकि अर्थ के बिना तीनों संभव नहीं हैं।

      माननीय ‘‘सम्पादक‘‘ महोदय द्वारा प्रतिवर्ष दीपावली के शुभ अवसर पर ‘‘महालक्ष्मी विशेषांक‘‘ अवश्य रखा जाता हैं। यह उनके वृहत हृदय का परिसूचक हैं। एक जिम्मेदार परिवार के मुखिया की भांति वह अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। वह जानते हैं कि बिना लक्ष्मी जी के जिवन सार्थक नहीं हो सकता इसलिए वह प्रतिवर्ष इस विशेषांक के माध्यम से अधिक से अधिक महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराते हैं। ‘‘सौभाग्य दीप‘‘ में प्रकाशित उपायों को करके जातक आर्थिक प्रगति तो करता ही है साथ ही उसे मानसिक शांति भी प्राप्त होती हैं।


      ‘‘सौभाग्य दीप‘‘ परिवार व समस्त पाठक गणों को ‘दीपावली के पावन पर्व की ‘‘हार्दिक शुभकामनाएं‘‘।


      जन्म कुंडली में विभिन्न धन योगों का वर्णन इस प्रकार हैं।


      जन्म कुंडली में द्वितीय भाव से संचित धन की स्थिति देखी जाती हैं। अष्टम भाव व शुक्र से ससुराल व पत्नी से प्राप्त धन व एकादश भाव से स्वयं द्वारा उपार्पित धन को देखा जाता हैं। धन के कारक ग्रह ‘‘गुरू‘‘ की स्थिति प्रथम विचारणीय हैं।


1.    धनेश लग्न में हो तो जातक को स्वतः ही धन प्राप्त होता रहता हैं। वह आर्थिक रूप से हमेशा सुदृढ़ रहता हैं।


2.    धन भाव का स्वामी धन स्थान में हो तो जातक के पास स्वयं का संचित धन अवश्य होता हैं। ऐसे जातक धन संग्रहण के शौकीन होते हैं। आर्थिक रूप से काफी समृद्ध होते हैं। धन की कमी नहीं होती।


अपवाद स्वरूप धन भाव में यदि चन्द्रमा अकेला स्वगृही है (मिथुन लग्न में कर्क राशि का चन्द्रमा) तो वह जीवन में धन संबंधी उतार-चढ़ाव अवश्य देता हैं। इस स्थान में चन्द्रमा पूर्णिमा और अमावस्या जैसा फल प्रदान करता है अर्थात कभी तो विपुल धन देता है तो कभी धन की अत्यधिक कमी भी करवा देता हैं। धन स्थान में स्वगृही शनि भी धीरे-धीरे धन संग्रहण करवाता हैं। धन स्थान में यदि धनेश शुक्र और बुध हो तथा राहु उससे संयुक्त हो तो अचानक धन अवश्य प्रदान करता हैं।


3.    धन का स्वामी तृतीय स्थान में हो तो जातक को स्वयं के पराक्रम के द्वारा धन लाभ होता हैं। धन प्राप्ति के लिए उसे यात्राएं करनी पड़ती हैं।


4.    धनेश चतुर्थ भाव में हो तो माता के द्वारा धन की प्राप्ति होती हैं। धन का सुख आजीवन प्राप्त होता हैं।


5.    धनेश यदि पंचम भाव में हो तो जातक जब पिता बनता है तभी धन संचय कर पाता है और धन का सुख प्राप्त करता हैं।


6.    धनेश का छठे भाग में जाना सर्वाधिक हानिकारक हैं। ऐसा जातक धन संचित नहीं कर पाता और यदि कर भी लेता है तो कभी उसका भोग नहीं कर पाता। कई बार अचानक ठंदा.तनचज (दीवालिया) भी हो जाता हैं।


नोट- छठे भाव में धनेश की दृष्टि द्वादश भाव पर भी होती है अतः खर्च भी अधिक तीव्र गति से होता हैं।


7.    धनेश सप्तम भाव में हो तो जातक को विवाह में या ससुराल से धन लाभ अवश्य होता हैं। जातक के विवाह के पश्चात उसकी पत्नी धन संचय अवश्य करती हैं। पत्नी के पास धन संग्रह अवश्य देखा गया हैं।


8.    धनेश अष्टम भाव में हो तो धन का क्षय करता हैं। परन्तु इस स्थिति में धन का स्वामी अपने ही घर को पूर्ण दृष्टि से देखता हैं इसलिए अधिक हानि नहीं कर पाता। ऐसे जातकों को जितने धन की आवश्यकता होती है उतनी व्यवस्था तुरन्त हो जाती हैं। इस स्थिति में जातक की पत्नी अधिक धनवान होती हैं क्योकि जातक का धनेश पत्नी के धन भाव में स्थित हो जाता है अतः पत्नी तो धन की प्राप्ति अधिक होती हैं। पत्नी तो धनवान होती ही है साथ ही जातक की आर्थिक स्थिति विवाह के बाद बहुत अच्छी हो जाती हैं।


नोट- अष्टम भाव में शुक्र की स्थ्ति जातक को ससुराल से सदैव लाभ करवाती हैं।


9.    धनेश भाग्य भाव में हो तो दैवीय कृपा से अचानक धन लाभ अवश्य होता हैं। मैंने अनुभव में देखा है कि इस स्थिति में यदि जातक को आवश्यक कार्य हेतु धन की आवश्यकता हो और धन की व्यवस्था न हो तो ज बवह थक हार के बैठ जाता है तब अचानक ही कहीं से उसे धन की प्राप्ति या व्यवस्था हो जाती हैं।इस स्थिति से वह कभी सोच भी नहीं पाता कि ऐसा क्यों हुआ जबकि ऐसा उसके साथ अक्सर होता हैं।


10.  धनेस दसम भाव में हो तो जातक को धन के लिए कर्म अवश्य ही करना पढ़ता हैं। अर्थात् उसे म्िवितज के द्वारा ही धन की प्राप्ति होती हैं।


नोट- इस स्थिति में उसे सरकार/शासन से धन लाभ अवश्य होते देखा गया हैं।


11.  धनेश यदि एकादश भाव में हो तो जातक के पास जीवन पर्यन्त धन होता हैं। इस स्थिति में यदि एकादश भाव का स्वामि अपने ही घर में हो तथा गुरू की सुदृढ़ स्थिति हो तो जातक ‘‘कुबेर‘‘ सदृश्य होता हैं। जातक की धन संबंधी सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। ऐसा जातक अपने मित्रों पर भी धन खर्च करता हैं।


इस स्थिति में जातक को पैतृक धन अवश्य मिलता हैं।


12.  धनेश द्वादश भाव में हो तो जातक जीवन में कभी भी धन का संग्रहण नहीं कर पाता। धन खर्च सदैव ही लगा रहता हैं। उसके खर्चे अधिक होते हैं। धन संबंधी उसकी समस्या आजीवन बनी रहती हैं। हां, धार्मिक कार्यों पर भी धन खर्च अवश्य होता हैं।


द्वादश लग्नों में सबसे प्रबल धन योग मैंने सिंह लग्न का देखा हैं। मैंने अनुभव किया हकि इससे बड़ा धन योग या संचित (इकट्ठा) धन योग विरले ही शायद हो। हालांकि इसके अपवाद (विपरीत राजयोग) भी हो सकते हैं। परन्तु मैंने इसे प्रथम श्रेणी का धन योग माना हैं।


सिंह लग्न में द्वितीय भाव में बुध$सूर्य प्रबल धन योग बनाता हैं। इसका कारण यह है कि सूर्य राजा है और धन के स्वामी के साथ विराजमान हैं। इस स्थिति में एक बात अवश्य विचारणीय हैं। वह यह कि केवल बुध ही एक ऐसा ग्रह है जो अपने घर में उच्च का होता हैं। अर्थात् धनेश जब धन भाव में हो और उच्च का हो जाए तो इससे बड़ा धन योग अन्य कोई ग्रह नहीं बना पाएगा। यहां इस बुधादित्य योग के पूर्ण फलित के लिए बुध व सूर्य के अंशो में 10 से अधिक का अन्तर अवश्य होना चाहिए।


इसी श्रेणी का प्रबल धन योग मिथुन लग्न में बनता हैं। मिथुन लग्न में यदि धनेश चन्द्रमा उच्च के गुरू से संयुक्त हो (चन्द्रमा पक्ष में बली हो) तो जातक अतुल धनवान होता हैं। विवाह के पश्चात् आर्थिक रूप् से अधिक समृद्ध होता हैं। जातक ‘कुबेर‘ सदृश्य होता हैं।


अन्य राजयोग में कुंभ लग्न में धन भाव में गुरू $ शुक्र की उपस्थिति भी बड़ा राजयोग निर्मित करती हैं। यह बड़ा विलक्षण धनु राजयोग है क्योंकि जातक को जिवन में गुरू या शुक्र की किसी एक की महादशा अवश्य मिलेगी और विपुल धन प्राप्ति की संभावना अधिक हैं।


नोट- इस योग पर वर्तमान में शोध जारी हैं।


धनवृद्धि के उपाय-


1.    लक्ष्मी जी सदैव किसी न किसी देवता (गणेश, सरस्वती) के साथ ही ूपजी जाती हैं। लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू है और वह वीराना और दुःख का प्रतीक हैं (उल्लू)। इस रूप में यदि उन्हें जाए तो लक्ष्मी जी आती अवश्य है पर प्रस्थान भी शीघ्र कर जाती हैं और सिर्फ वीराना ही शेष रह जाता हैं।


दीपावली पर लक्ष्मी जी के साथ सरस्वती जी और गणेश जी की आराधना की जाती हैं। ये दोंनो ही बुद्धि, ज्ञान, विवेक का प्रतिनिधित्व करते हैं और धन के आने पर इनकी परम् आवश्यकता होती हैं।


शास्त्रों में ‘‘लक्ष्मी जी‘‘ को चंचल कहा गया हैं। उन्हें एक स्थाप पर विराजे रहना पसंद नहीं हैं। वह तो चलायमान हैं। अतः धन आगमन के साथ-साथ धन का व्यय भी समुचित होना आवश्यक हैं।


1.    ‘लक्ष्मी जी‘ जो पुष्प पर विराजित हो अर्थात् लक्ष्मी जी के बैठे हुए स्वरूप का ही पूजन करना चाहिए, खड़े हुए स्वरूप का नहीं।


2.    धन संबंधित बातें गुप्त रखें।


3.    धन वृद्धि के लिए अपनी वाणि को मृदु बनाएं क्योंकि धनेष वाणी का स्वामी भी हैं। अतः यदि वाणि अच्छी होगी तो धनेष भी मजबूत हो जाएगा।


4.    धन की धनदेवी लक्ष्मी जी हैं। अतः माता, बहनों के साथ सदैव अच्छा मृदु व्यवहार करें।


5.    गय को प्रातः गुड़ व रोटी (ताजा) खिलाएं।


6.    धन को धार्मिक कार्यों में भी खर्च करें इससे भी धन वृद्धि अवश्य होती हैं।


7.    धन वृद्धि यंत्र धारण करें।


8.    यदि धन किसी कारण अचानक खर्च हो रहा हो तो उसे बुरे प्रभाव से बचाने हेतु घर में शुभ मुहूर्त में ‘‘बंधन मुक्ति यंत्र‘‘ लगाएं। (सौभाग्य दीप संस्था में उपलब्ध हैं।)


9.    धनेष की स्थिति के अनुसार रत्न धारण करें (ज्योतिषीय परामर्श के बाद ही)


10.  गलत तरीके से धन अर्जन से बचें।

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